अक्सर दीवारों का एक ही स्वभाव होता है कि वह धूप, छांव, बरसात सब सहने के बाद भी हमेशा चुपचाप बिना किसी शिकायत खड़ी रहती हैं और घर को मजबूती देती हैं. बिना दीवार किसी इमारत की कल्पना नहीं की जा सकती. लेकिन इसके बावजूद भी कई बार हम दीवारों को नजर अंदाज कर देते हैं. असल जिंदगी की तरह क्रिकेट में भी जब कभी भारतीय क्रिकेट टीम के सबसे बेहतरीन समकालीन क्रिकेट खिलाडियों की बात होती है तो नाम सचिन तेंदुलकर, सौरभ गांगुली जैसे खिलाड़ियों का पहले लिया जाता है. जबकि टीम को कई अहम मौकों पर जीत दिलाने और भारतीय क्रिकेट को नई दिशा देने वाले द्रविड़ का नाम दूसरे दर्जे के खिलाड़ियों की तरह लिया जाता है. वजह मीडिया के बीच उनकी कम पहुंच और लोगों का उनमें कम दिलचस्पी लेना.
द्रविड़ जब क्रिकेट की दुनिया में आए तो अधिकतर लोगों ने उन्हें टेस्ट क्रिकेटर मान कर उन्हें वनडे से दूर रखा. लेकिन जल्द ही 1999 विश्व कप में भारत की तरफ से सर्वाधिक रन बनाकर उन्होंने इस भ्रम को भी तोड़ दिया कि वह वनडे के लिए उपयुक्त नहीं है. लेकिन बराबर टीम का साथ देने वाले इस महान खिलाड़ी को कदम-कदम पर परीक्षा देनी पड़ी.
द्रविड़ ने अपने कॅरियर में ऐसे कई मील के पत्थर खड़े किए हैं जो उन्हें कई बार सचिन से भी बड़ा खिलाड़ी बनाते हैं. ग्यारह हजार से अधिक वनडे रनों के साथ और 13 हजार से अधिक टेस्ट रन बनाने वाले द्रविड़ को आज भी टीम में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है.
द्रविड़ ने हाल ही में वनडे मैचों से संन्यास लिया तो सबके सामने एक सवाल खड़ा हो गया कि क्या कोई ऐसा खिलाड़ी है जो वर्तमान में द्रविड़ का स्थान ले सकता है. द्रविड़ एक ऐसे खिलाड़ी हैं जो हमेशा अपना काम बिना शोरगुल के करते आए हैं. चाहे वनडे हो या टेस्ट हमेशा द्रविड़ ने अपने बल्ले से भारत को जीत दिलाई है. सिर्फ बल्ले से ही नहीं बल्कि द्रविड़ ने सभी आलोचकों को करार जवाब दिया है जो उन्हें एक कमजोर क्षेत्ररक्षक मानते हैं. द्रविड़ ने हाल के समय में सर्वाधिक टेस्ट कैच लिए हैं. स्लिप में उनकी मौजूदगी ने कई अहम मौकों पर भारत को जीत दिलाई है.
जो लोग द्रविड को एक धीमा बल्लेबाज मानते हैं उन्होंने द्रविड़ के उस अंदाज को नहीं देखा जिसमें उन्होंने अपने पहले और आखिरी टी-ट्वेंटी मैच में छक्के जड़े थे. द्रविड़ का आत्मविश्वास और गिर कर फिर खड़ा होने की क्षमता ही उन्हें दुनिया के सबसे बेहतरीन खिलाड़ियों में शामिल करती है.
कभी टीम के संकटमोचन की भूमिका निभाने वाले द्रविड़ को वनडे मैचों से यह कहकर बाहर कर दिया गया था कि अब युवाओं का दौर है. लेकिन अपने खेल और बेजोड़ तकनीक के बल पर वह फिर से टीम इंडिया का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं. बस गम तो इस बात का है कि कभी 1999 और 2003 के विश्वकप में भारत के सबसे बेहतरीन बल्लेबाजों में से एक रहे द्रविड़ को भारत में ही हुए विश्वकप का हिस्सा नहीं बनाया गया. इस बात का गम द्रविड़ के दिल में तो है पर इस दर्द को कभी उन्होंने किसी के सामने नहीं रखा.
आज अगर सचिन शतक बनाते हैं तो लोग कहते हैं भगवान जाग गए, युवराज छक्का मारते हैं तो मीडिया उन्हें असली युवराज बना देती है, धोनी का मैच जीतना उन्हें मुकद्दर का सिंकदर बनाती है पर द्रविड़ ने जब भी शतक ठोंका तो वह सिर्फ इतिहास ही बना. हां, एक दो बार टीवी पर वॉल और संकटमोचक के कारनामे दिखे पर वह भी कुछेक क्षण के लिए. लेकिन द्रविड़ कभी भी टीवी और मीडिया की चमक के मोहताज नहीं रहे. उन्होंने अपने खेल को ही अपना भगवान माना.
जब टीम को एक विकेटकीपर की जरूरत हुई तो खुद विकेटों के पीछे खड़े हो गए, जब कप्तान बनाया तो कप्तान बन गए जैसी टीम की जरूरत हुई वैसे ही ढल गए. द्रविड़ ने नंबर एक से नंबर सात तक अलग-अलग नंबरों पर बल्लेबाजी की है. हमेशा टीम की जरूरत के हिसाब से उन्होंने खुद को ढाला है.
आज हम बिना द्रविड़ के टेस्ट टीम की कल्पना नहीं कर सकते क्यूंकि हाल के समय में ऐसा कोई खिलाड़ी नहीं है जो द्रविड़ की जगह ले सके. और ना ही आने वाले समय में ऐसा कोई खिलाड़ी नजर आता है जो द्रविड़ की जगह ले सके.
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